बॉलीवुड से हॉलीवुड तक अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले इरफ़ान का जाना


मैं एक अलग खेल में था। मैं एक बहुत तेज रफ्तार ट्रेन में सफर कर रहा था। सपने थे, योजनाएँ थीं, अभिलाषाएं थीं, लक्ष्य थे। पूरी तरह से इनमें डूबा हुआ था। तभी अचानक किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, मैं देखने के लिए पीछे मुड़ा। तो देखा वह टी सी था। टीसी ने मुझसे कहा –तुम्हारी मंज़िल आने वाली है। कृपया उतार जाओ। मैं उसकी बात सुनकर कुछ भ्रमित हुआ और मैंने उसे कहा-नहीं नहीं मेरी मंजिल अभी नहीं आई। लेकिन टी सी ने फिर कहा नहीं यही है तुम्हारी मंजिल।


उपरोक्त बात अभिनेता इरफान खान ने सन 2018 में लंदन में तब व्यक्त की थी जब वह अपने कैंसर का इलाज़ कराने के लिए अस्पताल में दाखिल थे। आज जब इरफान खान के निधन का समाचार मिला तो लगा कि इरफान का वह ख्याल सच्चा था जो उन्होंने करीब दो बरस पहले महसूस किया था। देखा जाये तो ज़िंदगी सच में एक अजब पहेली है। जब कोई इंसान अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन बरसों से गुजर कर यह जश्न माना रहा हो कि उसका लंबा संघर्ष, उसकी मेहनत रंग ले आई है। लेकिन तभी उसे मौत अपने पास बुला ले तो एक बड़ा धक्का लगता है। इरफान खान के इंतकाल से आज उनके परिवार और उनके करीबी दोस्तों को ही नहीं उनके सभी चाहने वालों को एक बड़ा धक्का, एक बड़ा झटका लगा है।


इरफान खान पिछले कुछ बरसों से सच में एक ऐसी स्पीड वाली ट्रेन में सवार थे जहां उनके करियर को तेजी से नयी नयी मंजिल मिलती जा रही थीं। उनकी हर अगला स्टेशन यानि उनकी हर अगली फिल्म उनके करियर को आगे बढ़ा रही थी। लेकिन प्रकृति ने एक ही झटके में उनके फिल्मी सफर ही नहीं ज़िंदगी के सफर को भी थाम दिया है।


इरफान जयपुर के एक मुस्लिम पठान परिवार में 7 जुलाई 1967 को जन्मे थे। परिवार निम्न मध्यम वर्गीय था जहां बड़े सपने देखना आसान नहीं होता। लेकिन इस सबके बावजूद इरफान ने सपने देखने में कोई कंजूसी नहीं की।


यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इरफान की वालिदा सईदा बेगम ने अपने बेटे इरफान को भी बड़े सपने देखने में काफी मदद की। इरफान पिछले दिनों अपनी दो फिल्मों के लिए अच्छे खासे चर्चित हुए, एक हिन्दी मीडियम और दूसरी अँग्रेजी मीडियम। उधर बरसों पहले इरफान की माँ ने भी इरफान को सरकारी स्कूल के हिन्दी मीडियम से निकालकर अँग्रेजी मीडियम वाले स्कूल में दाखिला दिलाया था। हालांकि इरफान को शुरू में अँग्रेजी बोलने और समझने में काफी दिक्कतें आयीं लेकिन बाद में यह पढ़ाई उनके काम आई।


यह भी संयोग है कि उनकी माँ सईदा बेगम का इंतकाल भी सिर्फ चंद रोज पहले 25 अप्रैल को जयपुर में हुआ है। इरफान लॉकडाउन के चलते अपनी माँ के आखिरी लम्हों में उनके साथ खड़े नहीं हो सके। लेकिन माँ की जुदाई उन्हें इतनी विचलित कर गयी कि अब वह खुद ही अपनी उस प्यारी माँ के पास पहुँच गए हैं।


बात इरफान के संघर्ष और पढ़ाई के दिनों की हो रही थी तो बता दें कि इरफान ने पहले क्रिकेटर बनने का सपना देखा था। जयपुर के चौगान स्टेडियम में क्रिकेट खेलते खेलते उनके सपने तब सच होने लगे जब उनका  सीके नायडू ट्रॉफी के लिए चयन हो गया। लेकिन उनके परिवार को लगा क्रिकेट में करियर बनाना आसान नहीं है। इसलिए क्रिकेट छोड़कर कोई और राह चुनो। इरफान मन मसोसकर रह गए। तभी उनका रुझान रंगमंच की ओर हो गया। इरफान ने एक बार बताया था कि जब उन्होंने जयपुर में पहला नाटक ‘जलते बदन’ मंचित किया तभी उन्हें लगा कि क्रिकेट नहीं तो अभिनय की दुनिया में भी करियर बनाया जा सकता है।


हालांकि उनके परिवार वालों को लगा कि अभिनय की राह तो और भी मुश्किल है लेकिन अब वह इरफान को मना नहीं कर सके। क्योंकि इससे इरफान के हौंसले टूटटे। बस इसके बाद इरफान नाटकों की दुनिया में इतने रम गए कि उन्होंने दिल्ली के प्रतिष्ठित नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में प्रवेश के लिए आवेदन कर दिया। संयोग से इरफान को यहाँ प्रवेश मिल भी गया।


राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के वर्तमान निदेशक सुरेश शर्मा, जो स्वयं एनएसडी में इरफान के सीनियर भी थे, वह इरफान को याद कर भावुक हो उठते हैं। सुरेश शर्मा बताते हैं- “इरफान शुरू से एक मेधावी छात्र थे। अपने एन एस डी के दिनों में पढ़ाई करते हुए इरफान ने कई शानदार नाटक किए। जिनमें कार्लो गोल्डोनी का ‘द फैन’, मैक्सिम गोर्की का ‘लोअर डेप्थ्स’, चिंगीज आत्मिलोव का ‘असेंट ऑफ फ्यूजियामा’ तो आज भी याद किए जाते हैं।“


राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय के प्रशिक्षण के दौरान इरफान को अभिनय की सीख तो मिली ही साथ ही इस दौरान अपनी सहपाठी सुतापा सिकदर से उनके संबंध बहुत ही  घनिष्ठ और मधुर हो गए। आगे चलकर 1995 में सुतापा से इरफान ने शादी कर ली। यह सुतापा ही थीं कि जो इरफान के हर दुख, हर संघर्ष, हर खुशी, हर सफलता और हर मुश्किल घड़ी में हर पल उनके साथ रहीं।



राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से डिग्री हासिल करने के बाद इरफान मुंबई चले गए। जहां जल्द ही इरफान को पहले सीरियल और फिर फिल्मों में काम मिलना शुरू हो गया। जिनमें चंद्र प्रकाश दिवेदी के ‘चाणक्य’ में इरफान को सेनापति की भूमिका मिली। संयोग से ‘चाणक्य’ का पुनर्प्रसारण इन दिनों दूरदर्शन पर हो रहा है। तभी श्याम बेनेगल सरीखे फ़िल्मकार ने इरफान को ‘भारत एक खोज’ में भी ले लिया। बाद में तो इरफान ने कई सीरियल किए जिनमें बनेगी अपनी बात, चंद्रकांता, सारे जहां से अच्छा, डर, जस्ट मोहब्बत और द ग्रेट मराठा सहित बहुत से नाम हैं। इधर इरफान का एक और सीरियल भी फिर से दूरदर्शन पर आया है। जिसका नाम है ‘जय हनुमान’। इसमें इरफान बाल्मीकी की भूमिका में हैं।



उधर फिल्मों में तो इरफान ने बहुत ही शानदार पारी खेली। हालांकि उनकी उम्र अभी 54 साल थी और जिस तरह उनका करियर बहुत ही अच्छे ढंग से आगे चल रहा था। उससे वह अभी और भी आगे जाते। लेकिन अब तक के 32 बरसों के करियर में भी उनकी सलाम बॉम्बे, मकबूल, सात खून माफ, साढ़े सात फेरे, संडे, क्रेज़ी 4, तलवार, बिल्लू और पीकू जैसी कई बेहतरीन फिल्में हैं। अपनी एक फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के लिए तो इरफान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के साथ फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। फिल्मफेयर उन्हें और भी तीन फिल्मों के लिए मिले। जिनमें हासिल, लाइफ इन द मेट्रो और हिन्दी मीडियम हैं। इन पुरस्कारों के साथ उन्हें और भी कई सम्मान मिले जिनमें 2011 में मिला पदमश्री सबसे अहम है।


अपनी प्रतिभा का लोहा इरफान ने हॉलीवुड तक मनवाया। जहां लाइफ ऑफ पाई, द नेमसेक, जुरासिक वर्ल्ड, द अमेजिंग स्पाईड़र मैंन और पार्टिशन जैसी दसियों फिल्मों में उनके काम की बहुत तारीफ हुई। 


इरफान ने अपने करियर में गंभीर भूमिकाएँ कीं तो हास्य भूमिकाएँ भी कीं। वह नेगेटिव रोल में भी जमे तो हीरो के रूप में भी। लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पुलिस जैसी भूमिकाओं में। जैसे गुंडे फिल्म में वह एसीपी बने तो तलवार में सी बी आई अधिकारी, न्यूयॉर्क में एफ बी आई ऑफिसर तो जज्बा में इंस्पेक्टर योहान। यहाँ तक विदेशी फिल्म ‘हिस्स’ में भी वह इंस्पेक्टर विक्रम गुप्ता के रोल में नज़र आए।


सिनेमा को इरफान जैसे अभिनेता कभी कभार ही मिलते हैं। इसलिए उनका असमय जाना सभी को हमेशा खलता रहेगा।


- प्रदीप सरदाना