मधुर स्वभाव और प्रतिभा के धनी थे- गंगा प्रसाद विमल


मधुर स्वभाव और प्रतिभा के धनी थे- गंगा प्रसाद विमल


प्रदीप सरदाना


क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना, कुछ न आया काम तेरा  शोर करना गुल मचाना। सुप्रसिद्द कवि डॉ हरिवंश राय बच्चन की कविता की ये पंक्तियाँ आज मुझे कचोट रही हैं। क्योंकि साहित्यक दुनिया के जाने माने हस्ताक्षर डॉ गंगा प्रसाद विमल अब हमारे बीच नहीं रहे। श्रीलंका में अपने परिवार के साथ यात्रा पर गए विमल जी का एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया।


यूं सभी ने एक दिन जाना है। कबीर ने भी लिखा था- आए हैं सो  जाएँगे, राजा रंक फकीर। लेकिन विमल जी के निधन पर बच्चन जी की यह कविता इसलिए झकझोरती है कि गंगा प्रसाद विमल के साथ इस दुर्घटना में उनकी पुत्री कनुप्रिया सैगल और उनका नाती श्रेयस भी दुनिया को अलविदा कह गए। जिससे एक ही पल में ये तीन पीढ़ियाँ काल का ग्रास बन गईं।


कनुप्रिया स्वयं भी टीवी पत्रकारिता और मॉडलिंग की दुनिया का एक चिरपरिचित चेहरा थीं। इसे संयोग कहें या क्या कि 23 दिसम्बर को हुई इस त्रासदी से मात्र आठ दिन पहले 15 दिसम्बर को कनुप्रिया के घर पर ही दोपहर के भोजन पर मेरी गंगा प्रसाद विमल, कनुप्रिया और श्रेयस सहित उनके परिवार के समस्त सदस्यों के साथ एक अच्छी मुलाक़ात हुई थी। तब कहीं स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि यह हँसता खेलता परिवार चंद दिन में ही एक झटके में  बिखर जाएगा।


गंगा प्रसाद विमल देश के एक ऐसे साहित्य मनीषी थे जो कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और अनुवाद जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी मजबूत पकड़ रखते थे। उन्हें अकहानी और अकविता का जनक भी कहा जाता है। विमल जी क जन्म 3 जुलाई 1939 को वर्तमान उत्तराखंड राज्य के उस टिहरी रियासत में हुआ था जो अपनी पुरातन संस्कृति के लिए विख्यात है।


विमल के पिता विश्वम्बर दत्त उनियाल राजगढ़ी तहसील में सब डिवीज़न ऑफिसर थे। गंगा प्रसाद का जहां जन्म हुआ वह स्थान गंगा घाटी के रूप में भी जाना जाता रहा है, इसलिए पिता ने इनका नाम गंगा प्रसाद रख दिया। इनकी शुरुआती पढ़ाई उत्तरकाशी, ऋषिकेश और बाद में यमुना नगर, पंजाब और उस्मानिया विश्वविद्यालय आदि में हुई। अपने अध्ययन के दौरान ही साहित्य से इनका लगाव हो गया था। हालांकि सन 1965 में विमल ने डी फिल प्राप्त करने के साथ उसी बरस 5 फरवरी को कमलेश अनामिका से विवाह भी रचा लिया था। जिनसे विमल जी को दो संतान हुईं, सन 1969 में पुत्र आशीष और 1975 में पुत्री कनुप्रिया। विमल ने अपनी पुत्री का यह नाम धर्मवीर भारती की कालजयी कृति 'कनुप्रिया' से प्रेरित होकर रखा था।


गंगा प्रसाद विमल के मन में अपनी जन्म स्थली हिमालय और वहाँ के अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य और पर्यटन स्थलों से इतना लगाव था कि वह सन 1960 के दशक से ही उत्तराखंड से दूर रहने के बावजूद अंत तक अपनी जड़ों से जुड़े रहे। सन 1962 में तो वह पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाने लगे थे। फिर 1964 में वह दिल्ली आ गए जहां वह 1989 तक ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में प्राध्यापक रहे। इसके बाद 1989 से 1997 तक वह दिल्ली में ही केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के निदेशक रहे। इसी दौरान उनहोंने विभिन्न शब्दकोशों और भारतीय भाषाओं और नीतियों के लिए भी अपना भरपूर योगदान दिया। फिर 1999 से 2004 तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी अध्यापन करते रहे।


अभी भी वह बरसों से दिल्ली में ही रहकर अपने सृजनात्मक कार्यों के साथ विभिन्न साहित्यिक गोष्ठियों में हिस्सा लेने के लिए देश विदेश की यात्राएं करते रहते थे। उनकी इन्हीं यात्राओं के दौरान कभी हवाई अड्डे पर भागते दौड़ते उनसे मुलाक़ात हो जाती थी तो कभी दिल्ली में साहित्य से जुड़े कार्यक्रमों में भी।


डॉ विमल की रचनाओं को यदि ध्यान से पढ़ा जाये तो उनकी अधिकांश रचनाओं में पहाड़ों, पर्यावरण और प्रकृति सौंदर्य की झलक लगातार मिलती रही है। पेड़ों की कटाई करके जंगलों को नष्ट करने का मसला हो या वैश्विक तापमान के कारण बर्फीले पहाड़ों के जरूरत से अधिक पिघलने की चिंता सभी को विमल ने अपनी रचनाओं में उकेरा है। उनकी एक कविता है –एक पेड़, जब तक वह फल देता है, तब तक सच है,जब दे नहीं सकता,न पत्ते न छाया, तब खाल सिकुड़ने लगती है उसकी, और फिर एक दिन खत्म हो जाता है वह, इतिहास बन जाता है।


विमल की एक अन्य कविता के अंश हैं-''कुछ भी लिखूंगा बनेगी, तुम्हारी स्तुति, ओ प्यारी धरती।“ ऐसे ही एक और कविता है –''धूल के बिखरे कणों में, रह गए हैं नाम, कई बार लगता है, एक मैं ही रह गया हूँ, अपरिचित नाम।''


गंगा प्रसाद विमल ने अपने 50 से अधिक बरसों की साहित्यिक यात्रा में कुल 60 से अधिक पुस्तकों को रचा। जिनमें बोधि-वृक्ष, इतना कुछ,सन्नाटे से मुठभेड़, कुछ तो है और अलिखित-आदिखित उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं। वहीं कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, खोई हुई थाती, बाहर न भीतर, समग्र कहानियाँ  और इधर उधर प्रमुख कहानी संग्रह हैं। साथ ही अपने से अलग, कहीं कुछ और, मरीचिका और मानुसखोर उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उनके एक उपन्यास 'मृगांतक' पर एक विदेशी फिल्म भी बन चुकी है।


विमल ने जहां आज नहीं कल जैसा नाटक लिखा वहाँ अज्ञेय, प्रेमचंद और मुक्तिबोध के रचना संसार, अभिव्यक्ति और आधुनिक कहानी जैसी कई पुस्तकों का सम्पादन एवं कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया। कबीर और कुछ अन्य सूफी संतों को लेकर भी उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुईं। उनकी एक पुस्तक 'कहीं से भी देखो' का प्रकाशन तो इस वर्ष के आरंभ में ही हुआ। 


विमल जी स्त्री विमर्श के भी बड़े पक्षकार थे। इसके लिए वह लेखन से मंच तक हमेशा अपनी आवाज़ बुलंद रखते थे। अपने विशिष्ट कार्यों के लिए गंगा प्रसाद को देश विदेश में कई सम्मान भी मिले। जिनमें भारतीय भाषा सम्मान, संगीत अकादमी सम्मान, दिनकर सम्मान,महात्मा गांधी सम्मान के साथ पोएटरी पीपुल अवार्ड और यावरोव अवार्ड शामिल हैं।


डॉ विमल के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात यह थी कि वह एक बेहद सरल, मधुर और संस्कारी व्यक्ति थे। उनसे बात करके, मुलाक़ात करके बहुत अच्छा लगता था। साहित्य संसार में कई उपलब्धियां प्राप्त करने के बाद भी अहंकार उनमें दूर दूर तक नहीं था। सच कहा जाये तो –गंगा प्रसाद विमल स्वयं भी गंगा की तरह निर्मल थे।


प्रदीप सरदाना