हम सभी ईश्वर के पुत्र हैं-गुरू नानक


हम सभी ईश्वर के पुत्र हैं-गुरू नानक


गरू नानक सिक्खों के धर्मगुरू थे पर वे सदा से समस्त भारतीयों के श्रद्धा के पात्र भी हैं। आरंभ में मुसलमान लोग भी "गुरूनानक के समान रूप से अनुयायी थे।"


उनका जन्म सन् 1469 में ललितनारायण उपाध्याय "तलवण्डी" नामक स्थल में हुआ था। यह स्थान अब पाकिस्तान में है उनकी माता का नाम तृप्ता तथा पिता का नाम मेहता कालू था, जो मुसलमान जागीरदार राय बुलार के यहां काम करते थे। नानक का परिवार बड़ा भरा पूरा और समृद्ध था। उनकी बड़ी बहन का नाम नानकी था, इसलिये उनका नाम नानक रखा गया था।


पुरोहित हरदयाल ने जब नानक की जन्म कुण्डली बनाई तो उन्होंने बड़े प्रसन्न होकर घोषणा की थी कि-"यह बालक आगे चलकर बड़ा संत बनेगा और इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलेगी।


छ: वर्ष की आयु में ही नानक ने सारी प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर ली। उनके गुरू उनकी बुद्धि कुशाग्रता को देखकर आश्चर्यचकित थे। उसके पश्चात् उन्होंने फारसी भाषा सीखी।


10 वर्ष की उम्र में बालक नानक का यज्ञोपवीत संस्कार किया गया । ज्यों ही गुरू हरदयाल ने उनके गले में यज्ञोपवीत पहनाना चाहा। नानक ने कहा-'ठहरिये पहले बताईये कि वह डोरा पहनना क्यों आवश्यक है?" पण्डित ने कहा – “यह पवित्र है।"


" नानक ने कहा- "तो क्या इनको पहनने से मेरा हृदय शुद्ध और पवित्र अपने आप ही हो जायेगा। मुझे ऐसा डोरा पहनाइये, जिससे मेरा हृदय दया और संतोष से भरा रहेहै ऐसा कोई डोरा आपके पास?" पण्डितजी कोई उत्तर न दे सके। वहां उपस्थित सभी व्यक्तियों ने नानक के तर्को की सराहना की।


इस प्रकार अपनी बाल्यावस्था से ही नानक ने कोरे कर्मकाण्ड और धर्माडम्बरी का विरोध प्रारंभ कर दिया। आगे चलकर नानक ने अपना सम्पूर्ण जीवन जाति-पाति के बंधनों" व भेदों को तोड़ने और समाज में ऊंचनीच की भावना का अंत करने तथा सत्य, प्रेम और विनयशीलता तथा हिन्दू और मुसलमानों में धार्मिक सहिष्णुता तथा समझ के गुणों का विकास करने में लगाया। धर्माडम्बरों के बारे में उनके तर्क बहुत ही मौलिक व विचार प्रधान होते थे।


किशोरावस्था प्राप्त करने पर उनके पिता ने उन्हें व्यापार करने के लिये कुछ धन दिया। वे अपने मित्र बाला के साथ बाजार गये। वहां भूखों और नंगों तथा दुर्बल लोगों को देखकर उनका मन करूणा और दया से भर गया। उन्होंने बाजार से भोजन सामग्री और कपड़े खरीदे तथा उन्हें गरीबों के बीच बांट दिया। उनके पिता को जब सारा हाल मालूम हुआ तो हंसकर नानक ने उनसे कहा "भूखों को भोजन कराने से बढ़कर मुनाफे का धंधा और कौन-सा होगा।" 


नानक का तर्क सुनकर उनके पिता निरूत्तर रह गये उन्होंने अपने मालिक राय बुलार की सहायता से उन्हें सुल्तानपुर में काम से लगा दिया। इसी बीच सन् 1485 में उनका विवाह सुलखनी नामक गुणवान कन्या से कर दिया गया। उनका मित्र मर्दाना उनके विवाहोत्सव में आया और उसने नानक को एक एकतारा भेंट किया। अब नानक उनके साथ बैठकर भजन गाने लगे। धीरे-धीरे उनका नाम सब दूर फैलने लगा। बारह वर्ष तक उन्होंने "भण्डार रक्षक" के स्थान पर नौकरी की। इसी बीच उनके यहां दो पुत्रों ने भी जन्म लिया।


किंतु नानक का मन संसार के व्यापार में न लग सका। उन्होंने नौकरी छोड़कर तथा देशभर में घूमघूमकर लोगों में प्रेम और सहिष्णुता का संदेश देना प्रारंभ किया। उन दिनों भारत में मुस्लिम शासकों का शासन था। वे हिन्दुओं तथा समाज के निर्बल वर्ग पर अत्याचार कर रहे थे। ऐसे कठिन समय में नानक की धार्मिक सहिष्णुता की आवाज बड़ी ही प्रभावकारी सिद्ध हुई।


नानक ने हिन्दू और मुसलमानों के आपसी धार्मिक भेदभाव और धर्माडम्बरों पर कड़ा प्रहार किया व उन्हें दर करने की सलाह दी नानक ने उनके आपसी संघर्ष को समाप्त कर दोनों धर्मों के बीच सामन्जस्य भी स्थापित किया जिससे हिन्दू और मुसलमान प्रेम में रहना सीखने लगे।  नानक ने धार्मिक आडम्बरों पर कड़ा प्रहार किया व उन्हें दूर करने की सलाह दी।


नानक ने हिन्दु-मुस्लिम के आपसी "धर्म संघर्ष के समाप्त कर दोनों धर्मों के बीच सामन्जस्य को निर्मित किया, जिससे प्रेरणा पाकर हिन्दू और मुसलमान के बीच प्रेम बढ़ा। उन्होंने कहा"हममें न कोई हिन्दू हैं और न कोई मुसलमान। हम सभी ईश्वर के पुत्र हैं, परमात्मा के अंश हैं अतः उन्होंने स्वयं शुद्ध हृदय से मुसलमानों के साथ नमाज पढ़ी और हिन्दुओं के साथ मंदिरों में भजन भी गाये इसलिए नानक दोनों धर्मावलम्बियों के चहेते गुरू बन गये।


कुछ समय पश्चात् उन्होंने अपने परिवार से विदा लेकर देश भ्रमण करने की ठानी। वे सदा निर्बलों और गरीबों तथा नीची जाति के लोगों के यहां ही विश्राम करते थे। अपनी यात्रा के दौरान नानक पश्चिम उत्तर के मुस्लिम देशों की ओर भी गये। मक्का मुसलमानों के प्रसिद्ध तीर्थ स्थान पहुंने पर वे काबा शरीफ की तरफ पैर करके सो गये। किसी काजी ने उन्हें क्रोधित होकर जगाया और कहा कि-"काबा शरीफ की तरफ पैर करके सोने से पाप लगता है। तुमने ऐसा गलत काम क्यों किया?  इस पर नानक जी ने कहा,” मेरे पैर उधर कर दो जिधरा खुदा न हो।"


मक्का के बाद नानक व मर्दाना ने बगदाद तुर्की और अफगानिस्तान की यात्रा की तथा सन् 1521 में वे भारत लौटे। भारत आकर उन्होंने मुगल शासक बाबर से भेंट की और उन्हें कैदियों पर होने वाले अत्याचारों से परिचित कराके उन पर होने वाले जुल्मों को रूकवाया तथा बंदियों को छुड़ाकर उनकी सम्पत्ति उन्हें वापस लौटा दी।


इस समय तक नानक की आयु 52 वर्ष की हो चुकी थी। उन्होंने पुनः गृहस्थ बनकर अपने जीवन के उपदेशों को सार्थक करके दिखाने का निश्चय किया अतः उन्होंने भगवे वस्त्रों को उतारकर कर्तारपुर नामक गांव में खेतीबाड़ी करना शुरू किया। उन्होंने वहां ऊंच नीच का भेद खत्म करने तथा सबको समान रूप से एक स्थान पर बैठाने की दृष्टि से लंगर खोला, जिसके द्वारा सभी मेहनत करके खाने वालों के लिए खले थे और कामचोरों के लिए सर्वथा बंद थे।


आज भी गुरूद्वारों में "लंगर प्रथा चालू है, जिसमें सभी को भोजन करवाया जाता है। अंत में उन्होंने अपने सेवानिष्ठ शिष्य लहना को व इसके पश्चात् अंगद को उत्तराधिकारी घोषित किया तथा अपने पुत्रों को उस पद से वंचित कर दिया। 14 जून 1539 को लहना गुरू नानक का विधिपूर्वक उत्तराधिकारी बना। 22 सितम्बर 1539 को गुरू नानक ध्यान में लीन हो गये। उन्होंने सोचा"मेरा कार्य पूरा हो गया है। अब मैं अपना शरीर त्याग दूंगा," और इहलीला समाप्त हो गई।


जब उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार करने का प्रश्न उठा, तब हिन्दुओं ने उनका दाह संस्कार करना चाहा तो मुस्लिम अनुयायियों ने उसे "दफना देना चाहा। दोनों पक्षों के बीच झगड़ा बहुत बढ़ गया। यहां तक कि खींचातानी मच गई, किन्तु ज्यों ही उन्होंने चादर खीची, यह क्या उनका पार्थिव शरीर वहां नहीं मिला। उसके स्थान पर फूलों का अम्बार लगा हुआ था। इस प्रकार गुरू नानक का पार्थिव शरीर किसी को न मिल सका, वरन् वह उन सब अनुयायियों को शिक्षा दे गया जो उनके उपदेशों के मर्म को समझ नहीं पाये थे और अंत तक कोरे धार्मिक रीति रिवाजों के पीछे लड़ते ही रहे थे। 


 


- ललितनारायण उपाध्याय